तुर्की आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा बिखरी हुई और असंगठित थी, जिसने विदेशी आक्रमणकारियों के लिए इसे एक आसान लक्ष्य बना दिया था। 11वीं और 12वीं शताब्दी में, जब तुर्की आक्रमणकारी भारत की ओर आए, तब यहां कोई केंद्रीकृत शासन व्यवस्था नहीं थी। भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था, और इनमें आपसी संघर्ष होते रहते थे।
उत्तर भारत में राजपूत शासक प्रमुख थे, जो अपने पराक्रम और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थे, लेकिन उनके बीच एकता और सहयोग की भावना का अभाव था। उनके आपसी विवाद और सत्ता संघर्ष ने भारत को कमजोर कर दिया, और तुर्की आक्रमणकारियों को इसका लाभ मिला। राजपूतों में सामूहिक सुरक्षा का अभाव था, और वे विदेशी आक्रमणों का एकजुट होकर सामना करने में असफल रहे। राजपूत राज्य जैसे दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, और ग्वालियर स्वतंत्र थे, लेकिन इनकी आपसी प्रतिस्पर्धा ने उन्हें कमजोर बना दिया था।
पश्चिमोत्तर भारत में भी कई छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र रूप से शासन कर रहे थे, लेकिन वे भी बाहरी आक्रमणों के प्रति सजग नहीं थे। पंजाब और सिंध के क्षेत्रों में भी स्थानीय शासकों की स्थिति अस्थिर थी, जो तुर्कों के आक्रमण का सामना करने में सक्षम नहीं थे। दक्षिण भारत में चोल, पांड्य, और होयसल जैसे साम्राज्य अपेक्षाकृत सशक्त थे, लेकिन वे उत्तर भारत के राजनीतिक घटनाक्रम से दूर थे और इसलिए तुर्की आक्रमणों का प्रभाव दक्षिण पर कम पड़ा।
राजनीतिक विखंडन और कमजोर शासन व्यवस्था के कारण तुर्की आक्रमणकारी महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी जैसे शासकों को भारत पर आक्रमण करने और यहां अपनी सत्ता स्थापित करने में आसानी हुई। कुल मिलाकर, भारत की बिखरी हुई राजनीतिक स्थिति ने तुर्की आक्रमण को संभव और सफल बनाया, जिससे भारत में एक नए राजनीतिक और सांस्कृतिक युग की शुरुआत हुई।
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