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नबाब सिराजुददौला एवं ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के मध्य संघर्ष के कारण क्या थे?

नबाब सिराजुद्दौला और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संघर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। यह संघर्ष न केवल बंगाल की राजनीतिक स्थिति को प्रभावित किया, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें हम इस संघर्ष के विभिन्न कारणों का विश्लेषण करेंगे।

1. राजनीतिक अस्थिरता और नबाब का उदय

सिराजुद्दौला 1756 में बंगाल का नबाब बना। वह पहले के नबाबों के तुलनात्मक रूप से एक युवा और उग्र शासक था, जिसने अपने अधिकारों को स्थापित करने के लिए आंतरिक और बाहरी खतरों का सामना किया। उसका शासन तब शुरू हुआ जब बंगाल में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ रही थी। पहले के नबाब, अलिवर्डी खां की मृत्यु के बाद, विभिन्न शक्तियों में संघर्ष उत्पन्न हुआ, जिससे सिराजुद्दौला को अपनी सत्ता को मजबूत करने में कठिनाइयाँ आईं। इस अस्थिरता का लाभ उठाते हुए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया, जिससे सिराजुद्दौला की चिंता बढ़ गई।

2. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार

ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले ही बंगाल में व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ा दिया था और वहां की राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए अपनी शक्ति बढ़ाने लगी थी। कंपनी ने बंगाल में न केवल व्यापारिक अधिकार प्राप्त किए, बल्कि धीरे-धीरे वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी उभरी। सिराजुद्दौला ने कंपनी के इस राजनीतिक विस्तार को अपनी सत्ता के लिए खतरा मानते हुए उनकी गतिविधियों को रोकने का प्रयास किया।

3. कंपनी का व्यापारिक निहितार्थ

सिराजुद्दौला ने यह देखा कि कंपनी ने बंगाल के व्यापार पर नियंत्रण पाने के लिए अनेक चालें चलीं। कंपनी ने अपनी मुनाफाखोरी को बढ़ाने के लिए स्थानीय व्यापारियों के खिलाफ अनुचित प्रतिस्पर्धा की। उसने अपनी सेना को मजबूत करने के लिए भी स्थानीय लोगों से कर वसूली की, जिससे नबाब की स्थिति और कमजोर हुई। इस संदर्भ में, सिराजुद्दौला ने कंपनी के व्यापारिक निहितार्थों को खतरनाक समझा और अपनी स्थिति को सुरक्षित करने के लिए सक्रिय रूप से कदम उठाने का निर्णय लिया।

4. पार्श्ववर्ती संघर्ष

सिराजुद्दौला की इस चिंता को बढ़ाने वाला एक अन्य कारक यह था कि कंपनी के सहयोगी स्थानीय सामंतों और राजाओं ने भी उसकी स्थिति को कमजोर करने का प्रयास किया। कंपनी ने ऐसे स्थानीय राजाओं को समर्थन देकर सिराजुद्दौला को अस्थिर करने का प्रयास किया। इससे नबाब के लिए अपने राजनीतिक अधिकार को बनाए रखना और भी कठिन हो गया।

5. तथाकथित "विजय की महिमा" और ब्रिटिश साम्राज्यवाद

कंपनी ने अपने द्वारा किए गए सैन्य अभियानों को विजय के रूप में प्रस्तुत किया। जब सिराजुद्दौला ने कंपनी की गतिविधियों का विरोध किया, तो कंपनी ने इसे नबाब के खिलाफ एक "संघर्ष" के रूप में प्रचारित किया। कंपनी की नीतियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह केवल व्यापार नहीं कर रही है, बल्कि अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों को भी पूरा कर रही है। यह बात सिराजुद्दौला के लिए न केवल एक व्यक्तिगत संघर्ष थी, बल्कि एक साम्राज्य के खिलाफ अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई भी थी।

6. सैन्य संघर्ष और निर्णायक युद्ध

इन सभी कारणों के चलते 1757 में प्लासी की लड़ाई हुई। सिराजुद्दौला ने अपनी सेना को संगठित किया, लेकिन कंपनी के पास बेहतर रणनीति, मजबूत सैन्य तैयारी और स्थानीय सहयोगी थे। यह लड़ाई सिराजुद्दौला के लिए विनाशकारी साबित हुई, और उसकी हार ने बंगाल में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव को बढ़ा दिया।

7. परिणाम

इस संघर्ष का परिणाम न केवल सिराजुद्दौला के लिए विनाशकारी था, बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विकास का भी एक महत्वपूर्ण चरण था। नबाब की हार ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल के मामलों में सीधे हस्तक्षेप करने का मौका दिया और धीरे-धीरे भारत के अन्य हिस्सों में भी कंपनी ने अपनी शक्ति बढ़ाई।

निष्कर्ष

नबाब सिराजुद्दौला और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संघर्ष एक जटिल राजनीतिक परिदृश्य का परिणाम था, जिसमें नबाब की अस्थिरता, कंपनी का व्यापारिक विस्तार, स्थानीय सामंतों का सहयोग, और साम्राज्यवादी नीतियाँ शामिल थीं। इस संघर्ष ने भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ दिया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नींव रखी, जिसने बाद में सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप को प्रभावित किया।

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