विकास का अर्थ
विकास का अर्थ है किसी भी व्यक्ति, समाज, या समूह के जीवन के विभिन्न पहलुओं में समय के साथ होने वाले परिवर्तन। यह परिवर्तन शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक, और बौद्धिक विकास से जुड़ा हो सकता है। विकास किसी भी व्यक्ति या जीव की संपूर्णता का संकेत होता है, जिसमें उसके व्यवहार, दृष्टिकोण और क्षमताओं में सुधार होता है। यह जीवनभर चलने वाली एक प्रक्रिया है, जो बचपन से लेकर बुढ़ापे तक होती है।
विकास केवल शारीरिक बदलावों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक क्षेत्रों में भी होता है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा जब बढ़ता है तो वह न केवल शारीरिक रूप से विकसित होता है, बल्कि उसकी सोचने की क्षमता, समझ और दूसरों के साथ उसके सामाजिक संबंध भी विकसित होते हैं। इसलिए, विकास एक व्यापक प्रक्रिया है जिसमें शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तनों का समावेश होता है।
विकास केवल आयु के साथ नहीं होता, बल्कि यह कई बाहरी और आंतरिक कारकों से प्रभावित होता है। इसमें आनुवांशिक, पर्यावरणीय, सामाजिक और सांस्कृतिक कारक शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए, एक बच्चा जिस परिवार और समाज में जन्म लेता है, वहां की संस्कार, परंपराएं, और वातावरण उसके विकास को प्रभावित करते हैं।
विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत
विकास को समझने के लिए कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि कैसे और क्यों व्यक्ति समय के साथ विकसित होते हैं। इन सिद्धांतों को विकासात्मक मनोविज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। विकास के प्रमुख सिद्धांतों को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है:
1. सततता का सिद्धांत (Principle of Continuity)
यह सिद्धांत यह कहता है कि विकास एक निरंतर और क्रमिक प्रक्रिया है। इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति का विकास अचानक नहीं होता, बल्कि यह धीरे-धीरे और क्रमिक रूप से होता है। एक बच्चा शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से समय के साथ विभिन्न चरणों से गुजरता है, और यह प्रक्रिया उसके जीवनभर चलती रहती है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा धीरे-धीरे शिशु अवस्था से बाल अवस्था, फिर किशोर अवस्था और अंततः वयस्क अवस्था में प्रवेश करता है।
यह सिद्धांत यह भी दर्शाता है कि जीवन के विभिन्न चरणों में विकास का स्वरूप और गति भिन्न हो सकती है। किसी भी व्यक्ति के विकास में समय के साथ बदलाव आते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया कभी रुकती नहीं है। बचपन में शारीरिक और मानसिक विकास की गति तेज होती है, जबकि वयस्क अवस्था में यह गति धीमी हो जाती है, लेकिन विकास की प्रक्रिया चलती रहती है।
2. समानता और विशिष्टता का सिद्धांत (Principle of Uniformity and Individual Differences)
यह सिद्धांत यह कहता है कि विकास की प्रक्रिया सभी व्यक्तियों में कुछ हद तक समान होती है, लेकिन हर व्यक्ति का विकास अपने-अपने ढंग से होता है। सामान्य रूप से, सभी बच्चे एक समान तरीके से शारीरिक और मानसिक रूप से विकसित होते हैं, जैसे कि सभी बच्चे पहले रेंगना सीखते हैं, फिर चलना और बोलना सीखते हैं। लेकिन, विकास की गति और तरीका हर व्यक्ति के लिए अलग हो सकता है।
उदाहरण के लिए, कुछ बच्चे जल्दी बोलना शुरू कर सकते हैं, जबकि अन्य बच्चे थोड़ी देर से। इसी तरह, कुछ बच्चे शारीरिक रूप से तेज़ी से विकसित होते हैं, जबकि कुछ में विकास की गति थोड़ी धीमी हो सकती है। यह अंतर कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे कि आनुवांशिक कारक, पर्यावरण, और पोषण।
3. अवयविक से वैशिष्ट्य का सिद्धांत (Principle of Cephalocaudal and Proximodistal Development)
यह सिद्धांत यह बताता है कि विकास शरीर के ऊपरी हिस्सों से निचले हिस्सों की ओर और केंद्रीय हिस्सों से बाहरी हिस्सों की ओर होता है। इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
- सेफलोकेडल सिद्धांत (Cephalocaudal Principle): इस सिद्धांत के अनुसार, विकास सिर से शुरू होता है और शरीर के निचले हिस्सों की ओर बढ़ता है। यानी शारीरिक विकास पहले सिर और मस्तिष्क में होता है, फिर हाथों, धड़ और पैरों में। उदाहरण के लिए, शिशु पहले सिर को नियंत्रित करना सीखते हैं, फिर वे बैठना, चलना और दौड़ना सीखते हैं।
- प्रॉक्सिमोडिस्टल सिद्धांत (Proximodistal Principle): इस सिद्धांत के अनुसार, विकास शरीर के केंद्र से शुरू होता है और बाहरी अंगों की ओर बढ़ता है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा पहले अपने कंधों और धड़ को नियंत्रित करना सीखता है, और बाद में हाथों और उंगलियों का बेहतर इस्तेमाल करना सीखता है।
4. एकीकरण का सिद्धांत (Principle of Integration)
यह सिद्धांत कहता है कि विकास की प्रक्रिया में विभिन्न क्षमताओं और कौशलों का समायोजन और समेकन होता है। शुरुआती विकास चरणों में बच्चा विभिन्न क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को स्वतंत्र रूप से करता है, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, ये क्रियाएं एकीकृत होकर अधिक जटिल और सुसंगत हो जाती हैं।
उदाहरण के लिए, शिशु का प्रारंभिक शारीरिक विकास बिखरा हुआ होता है, लेकिन जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है, उसके मोटर कौशल एकीकृत होते जाते हैं। वह पहले अलग-अलग क्रियाएं करता है, जैसे कि रेंगना, फिर चलना और अंत में दौड़ना। इसी प्रकार, मानसिक विकास में भी पहले अलग-अलग अवधारणाएं और विचार होते हैं, जो बाद में एकीकृत होकर जटिल विचार प्रक्रियाओं का रूप लेते हैं।
5. मंच सिद्धांत (Stage Principle)
इस सिद्धांत के अनुसार, विकास क्रमिक चरणों में होता है और प्रत्येक चरण की अपनी विशेषताएं होती हैं। यह सिद्धांत यह मानता है कि व्यक्ति के जीवन के विभिन्न चरणों में विकास की प्रकृति और दिशा भिन्न होती है। ये चरण सामान्यतः बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, और वृद्धावस्था में विभाजित किए जाते हैं। प्रत्येक चरण में व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आवश्यकताएं और व्यवहार बदलते हैं।
उदाहरण के लिए, शिशु अवस्था में बच्चा पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर होता है, लेकिन किशोरावस्था में वह स्वतंत्रता और पहचान की खोज करता है। इसी प्रकार, वयस्क अवस्था में व्यक्ति अपने करियर और परिवार पर ध्यान केंद्रित करता है, जबकि वृद्धावस्था में उसकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं।
6. मनो-सामाजिक सिद्धांत (Psychosocial Principle)
यह सिद्धांत एरिक एरिक्सन द्वारा प्रस्तुत किया गया था और यह बताता है कि व्यक्ति का विकास केवल शारीरिक या मानसिक नहीं होता, बल्कि इसमें सामाजिक और भावनात्मक पहलू भी शामिल होते हैं। एरिक्सन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का विकास आठ महत्वपूर्ण मनो-सामाजिक चरणों में होता है, जिनमें व्यक्ति को विभिन्न संघर्षों का सामना करना पड़ता है। प्रत्येक चरण में एक विशेष संघर्ष या चुनौती होती है, जिसे सफलतापूर्वक पार करने पर व्यक्ति का सामाजिक और भावनात्मक विकास होता है।
उदाहरण के लिए, बचपन में बच्चे को आत्मविश्वास और आत्म-चेतना के विकास की चुनौती का सामना करना पड़ता है। किशोरावस्था में पहचान और सामाजिक संबंधों के निर्माण की चुनौती होती है, जबकि वयस्कता में आत्म-समर्पण और संबंधों की स्थिरता की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष:
विकास एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक क्षेत्रों में समय के साथ होती है। इसके कई महत्वपूर्ण सिद्धांत विकास की प्रक्रिया को समझने में सहायक होते हैं, जैसे कि सततता का सिद्धांत, समानता और विशिष्टता का सिद्धांत, अवयविक से वैशिष्ट्य का सिद्धांत, एकीकरण का सिद्धांत, मंच सिद्धांत, और मनो-सामाजिक सिद्धांत। इन सिद्धांतों के माध्यम से हम यह समझ सकते हैं कि व्यक्ति का विकास कैसे होता है, और यह कैसे विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है।
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