राजनीति विज्ञान के व्यवहारवादी उपागम की विशेषताएं और सीमाएं
राजनीति विज्ञान के अध्ययन में व्यवहारवादी उपागम (Behavioral Approach) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसने पारंपरिक दृष्टिकोणों को चुनौती दी और राजनीति विज्ञान को एक अधिक वैज्ञानिक और अनुभवात्मक आधार प्रदान किया। यह उपागम 20वीं शताब्दी के मध्य में प्रकट हुआ और इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहारों का अध्ययन करना था, न कि केवल राजनीतिक संस्थाओं और उनके आदर्शों का। इसे एक क्रांति के रूप में भी देखा गया, जिसने राजनीति विज्ञान के अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक और अनुभवजन्य आधार प्रदान किया।
व्यवहारवादी उपागम की प्रमुख विशेषताएं
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण: व्यवहारवादी उपागम का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह राजनीति विज्ञान को एक वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में देखता है। इसके अनुयायी मानते हैं कि राजनीति का अध्ययन सामाजिक विज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह वैज्ञानिक तरीकों से किया जाना चाहिए। इसके तहत, अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता, मापन क्षमता, और अनुभवजन्यता पर जोर दिया जाता है। राजनीति में घटनाओं, प्रक्रियाओं और व्यवहारों का गहन अवलोकन और आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण किया जाता है। इस दृष्टिकोण से राजनीति विज्ञान अधिक गणनात्मक और सांख्यिकीय रूप से मापनीय हो जाता है।
- व्यक्तिगत व्यवहार पर जोर: पारंपरिक दृष्टिकोणों के विपरीत, जो संस्थानों, संविधान और नियमों पर केंद्रित थे, व्यवहारवादी दृष्टिकोण मुख्य रूप से व्यक्तियों और उनके राजनीतिक व्यवहार पर केंद्रित होता है। राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों, नेताओं, और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के व्यवहार और उनकी प्रक्रियाओं का गहन अध्ययन किया जाए। यह माना जाता है कि राजनीतिक घटनाओं के पीछे का प्रमुख कारण मानवीय व्यवहार है और इसे समझने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग किया जाना चाहिए।
- अनुभवजन्यता: व्यवहारवादी उपागम अनुभवजन्यता पर आधारित है, यानी यह किसी भी सिद्धांत या निष्कर्ष को केवल तभी मान्यता देता है जब उसे अनुभवजन्य प्रमाणों द्वारा समर्थित किया गया हो। सिद्धांतों और विचारों को सिद्ध करने के लिए साक्ष्य और अनुभव का उपयोग किया जाता है। इस दृष्टिकोण में अध्ययन का आधार आंकड़े, सर्वेक्षण, चुनाव परिणाम और अन्य प्रकार की कठोर विधियों से जुटाए गए आंकड़े होते हैं।
- मूल्य-तटस्थता (Value-neutrality): व्यवहारवादी उपागम राजनीति विज्ञान में तटस्थता और निष्पक्षता पर जोर देता है। अनुसंधानकर्ता को अपने व्यक्तिगत विचारों, भावनाओं, और मूल्यों से अलग होकर अध्ययन करना चाहिए। इस दृष्टिकोण का मुख्य उद्देश्य राजनीति के अध्ययन को मूल्य-तटस्थ और निष्पक्ष बनाना है ताकि अनुसंधानकर्ताओं के व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से अनुसंधान प्रभावित न हो।
- अनुशासनिक समन्वय: व्यवहारवादी दृष्टिकोण में केवल राजनीति विज्ञान ही नहीं, बल्कि समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और मानवविज्ञान जैसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से भी अवधारणाएं और पद्धतियाँ ली जाती हैं। यह अध्ययन में समग्रता को प्रोत्साहित करता है, ताकि राजनीति को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके।
- व्यवस्थित आंकलन और सर्वेक्षण: इस उपागम के अंतर्गत राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहारों के अध्ययन में व्यवस्थित आंकलन, सर्वेक्षण और सांख्यिकी तकनीकों का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। इससे अध्ययन अधिक सटीक और ठोस बनता है। इस दृष्टिकोण से, राजनीतिक सिद्धांतों की वैधता तब तक नहीं मानी जाती जब तक कि उन्हें व्यवस्थित रूप से परीक्षण न किया गया हो।
व्यवहारवादी उपागम की सीमाएँ
- अति वैज्ञानिक दृष्टिकोण: यद्यपि व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान के अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक और अनुभवजन्य बनाता है, लेकिन इसकी आलोचना इस आधार पर की जाती है कि यह राजनीति के अध्ययन को अत्यधिक संकीर्ण बना देता है। राजनीति विज्ञान केवल राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन नहीं है, बल्कि इसमें मानवीय मूल्यों, नैतिकताओं और आदर्शों का भी स्थान है। व्यवहारवादी उपागम इन पहलुओं की उपेक्षा करता है, जो राजनीतिक जीवन के महत्वपूर्ण भाग होते हैं।
- मूल्यों की उपेक्षा: इस दृष्टिकोण की दूसरी महत्वपूर्ण सीमा यह है कि यह मूल्यों की उपेक्षा करता है। राजनीतिक सिद्धांत और दर्शन में मूल्य एक केंद्रीय भूमिका निभाते हैं, लेकिन व्यवहारवादी उपागम तटस्थता और वस्तुनिष्ठता पर इतना जोर देता है कि यह नैतिक और मूल्य आधारित दृष्टिकोणों को महत्व नहीं देता। इस कारण से, व्यवहारवादी उपागम केवल तथ्यात्मक विश्लेषण पर निर्भर करता है, जबकि राजनीतिक निर्णय अक्सर मानवीय और नैतिक कारकों पर आधारित होते हैं।
- संदर्भ की उपेक्षा: व्यवहारवादी उपागम कभी-कभी राजनीतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं के व्यापक संदर्भ की उपेक्षा कर सकता है। राजनीति का अध्ययन केवल आंकड़ों और सर्वेक्षणों पर आधारित नहीं हो सकता; इसके लिए सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, और सामाजिक संदर्भों को समझना भी आवश्यक होता है। व्यवहारवादी दृष्टिकोण कभी-कभी इन संदर्भों को महत्व नहीं देता, जिससे राजनीति का समग्र चित्र अधूरा रह जाता है।
- व्यक्तियों पर अधिक जोर: यह उपागम राजनीतिक संस्थाओं और संरचनाओं की तुलना में व्यक्तियों और उनके व्यवहार पर अधिक जोर देता है। हालांकि व्यक्तियों का अध्ययन महत्वपूर्ण है, लेकिन संस्थाओं, कानूनी संरचनाओं, और राजनीतिक प्रक्रियाओं की भी राजनीति विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह उपागम व्यक्तिगत व्यवहारों के अध्ययन में संस्थागत संरचनाओं की भूमिका को गौण मान लेता है।
- आंकड़ों पर अत्यधिक निर्भरता: व्यवहारवादी उपागम आंकड़ों और सर्वेक्षणों पर अत्यधिक निर्भर होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि आंकड़े और सर्वेक्षण हमेशा सटीक हों। राजनीतिक घटनाएँ और व्यवहार जटिल होते हैं, और उन्हें मात्र आंकड़ों से पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। इसके अलावा, आंकड़ों की व्याख्या भी एक चुनौती हो सकती है और गलत निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
- परिवर्तनशीलता की कमी: व्यवहारवादी उपागम में अध्ययन की पद्धतियों और निष्कर्षों में परिवर्तनशीलता और लचीलापन कम होता है। राजनीति एक अत्यंत परिवर्तनशील क्षेत्र है, और इसमें हर समय नई परिस्थितियाँ और घटनाएँ घटित होती रहती हैं। व्यवहारवादी दृष्टिकोण में, पुरानी घटनाओं और व्यवहारों के आधार पर भविष्य के घटनाक्रम की भविष्यवाणी करना कठिन हो सकता है। यह उपागम राजनीतिक जीवन की गतिशीलता और परिवर्तनशीलता को पूरी तरह से नहीं पकड़ पाता।
निष्कर्ष
व्यवहारवादी उपागम ने राजनीति विज्ञान के अध्ययन में वैज्ञानिकता और अनुभवजन्यता को बढ़ावा देकर इसे एक सुदृढ़ और सटीक अनुशासन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने राजनीतिक व्यवहार और प्रक्रियाओं को समझने के लिए नई दिशा दी है और राजनीति के अध्ययन को तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर ठोस रूप से स्थापित किया है।
हालांकि, इस उपागम की कुछ सीमाएँ भी हैं, विशेष रूप से यह कि यह नैतिक, मूल्य आधारित, और संस्थागत पक्षों की उपेक्षा करता है। आंकड़ों और वैज्ञानिक विधियों पर अत्यधिक निर्भरता इसे संकीर्ण दृष्टिकोण का बना देती है, जो राजनीति के व्यापक और जटिल संदर्भों को पूरी तरह से नहीं समझ पाता।
इसलिए, व्यवहारवादी उपागम को अन्य दृष्टिकोणों और पद्धतियों के साथ संयोजन में उपयोग करना आवश्यक है ताकि राजनीति का अध्ययन व्यापक और समग्र रूप में किया जा सके।
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