राजनीतिक विज्ञान के परंपरागत दृष्टिकोण के योगदान का मूल्यांकन
राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन में परंपरागत दृष्टिकोण (Traditional Approach) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह दृष्टिकोण राजनीति को मुख्यतः आदर्श, नैतिकता और न्याय के सिद्धांतों के आधार पर समझने की कोशिश करता है। परंपरागत दृष्टिकोण की नींव प्राचीन और मध्यकालीन राजनीतिक चिंतन पर आधारित थी, लेकिन 19वीं और 20वीं सदी में भी इसका प्रभाव महत्वपूर्ण रहा। इसके योगदानों और सीमाओं को समझना आवश्यक है, ताकि हम यह जान सकें कि इस दृष्टिकोण ने राजनीतिक विज्ञान के विकास में किस प्रकार की भूमिका निभाई।
1. राजनीति की परिभाषा और सिद्धांतों का विकास
परंपरागत दृष्टिकोण ने राजनीतिक विज्ञान को एक व्यवस्थित और सैद्धांतिक आधार प्रदान किया। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक जीवन के मूलभूत तत्वों, जैसे सत्ता, शासन, क़ानून, अधिकार, और स्वतंत्रता को समझना था। इस दृष्टिकोण में, राजनीति का अध्ययन संस्थाओं, संविधान, और शासन प्रणालियों के माध्यम से किया जाता था। इसके सिद्धांतों ने लोकतंत्र, न्याय, और राजनीतिक अधिकारों को महत्वपूर्ण माना।
विशेष योगदान:
- राजनीतिक संस्थाओं और कानूनों का अध्ययन: परंपरागत दृष्टिकोण में राजनीतिक संस्थाओं—जैसे संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका—और उनके कार्यों का विश्लेषण किया जाता था। इसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों की भूमिका और उनकी प्रभावशीलता को समझने का प्रयास किया गया।
- नैतिक और आदर्श दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण राजनीति को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत करता था, जहाँ नैतिकता और समाज के भले के प्रति प्रतिबद्धता को महत्वपूर्ण माना जाता था। यह शासन के उद्देश्यों को तय करने में सहायक था और एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की दिशा में मार्गदर्शन करता था।
2. राजनीतिक विचारों का ऐतिहासिक और दार्शनिक विश्लेषण
परंपरागत दृष्टिकोण में राजनीतिक विचारों का ऐतिहासिक और दार्शनिक विश्लेषण अत्यधिक महत्वपूर्ण था। इस दृष्टिकोण में प्राचीन और आधुनिक राजनीतिक विचारकों जैसे प्लेटो, अरस्तू, मैकियावेली, हॉब्स, लोक, रूसो और हेगेल के सिद्धांतों का गहराई से अध्ययन किया गया। इन विचारकों ने राजनीति को एक दार्शनिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की, जहाँ शक्ति, स्वतंत्रता, और समाज का रूपांतरण महत्वपूर्ण मुद्दे थे।
विशेष योगदान:
- राजनीतिक दर्शन: परंपरागत दृष्टिकोण ने राजनीति को केवल एक सामाजिक और संस्थागत प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि एक दार्शनिक और नैतिक प्रक्रिया के रूप में देखा। उदाहरण स्वरूप, प्लेटो और अरस्तू ने राजनीति को आदर्श राज्य के निर्माण के रूप में देखा था, जो न्याय, समानता, और अच्छे शासन पर आधारित हो।
- राजनीतिक विचारकों की योगदान: परंपरागत दृष्टिकोण ने इन विचारकों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया और उनके विचारों को आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था की नींव के रूप में प्रस्तुत किया। उदाहरण के लिए, रूसो के "सामाजिक अनुबंध" और लोक के "प्राकृतिक अधिकारों" ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का स्थायित्व
परंपरागत दृष्टिकोण ने राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के स्थायित्व को महत्त्व दिया। इसके तहत, यह देखा गया कि कैसे विभिन्न राजनीतिक संस्थाएँ—जैसे संसद, सरकार और न्यायपालिका—अपने कार्यों को व्यवस्थित तरीके से और एक स्थिर संविधान के भीतर करती हैं। इसका उद्देश्य था इन संस्थाओं के कामकाज को सुसंगत और प्रभावी बनाना।
विशेष योगदान:
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संविधान और संस्थागत व्यवस्था: परंपरागत दृष्टिकोण ने यह स्पष्ट किया कि संविधान और राजनीतिक संस्थाएँ समाज के भीतर स्थिरता बनाए रखने के लिए जरूरी हैं। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि राजनीतिक जीवन में बदलाव और सुधार कानूनों के तहत किया जाए, न कि तात्कालिक नेताओं या शक्ति के आधार पर।
4. समाज और राजनीति के बीच संबंधों का विश्लेषण
परंपरागत दृष्टिकोण ने समाज और राजनीति के बीच गहरे संबंधों को समझने की कोशिश की। यह दृष्टिकोण मानता था कि राजनीति केवल संस्थाओं या व्यक्तियों के संघर्ष का परिणाम नहीं होती, बल्कि यह समाज की संरचना, संस्कृति और नैतिक मूल्यों से प्रभावित होती है।
विशेष योगदान:
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सामाजिक न्याय: इस दृष्टिकोण में सामाजिक न्याय के सिद्धांत को महत्त्व दिया गया था। यह माना गया कि एक अच्छे शासन के लिए समाज के विभिन्न वर्गों की भलाई को ध्यान में रखना जरूरी है।
5. परंपरागत दृष्टिकोण की सीमाएँ
परंपरागत दृष्टिकोण के महत्व के बावजूद, इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। इस दृष्टिकोण में, राजनीतिक वास्तविकताओं और सामाजिक बदलावों का गहराई से अध्ययन नहीं किया जाता था। इसके अलावा, यह दृष्टिकोण मुख्यतः संविधान, सरकार और संस्थाओं के अध्ययन तक सीमित था और इसमें सामाजिक और आर्थिक तत्वों की अनदेखी की जाती थी। इसका ध्यान अक्सर आदर्शवाद और न्याय पर था, लेकिन यह वास्तविक राजनीति, जैसे सत्ता संघर्ष, चुनाव, और राजनीतिक व्यवहार, पर कम ध्यान केंद्रित करता था।
सीमाएँ:
- प्रभावी बदलाव की कमी: इस दृष्टिकोण में बदलाव की प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया था। इसने पुराने सिद्धांतों को ही प्राथमिकता दी और नए राजनीतिक घटनाक्रमों और सामाजिक आंदोलनों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया।
- व्यवहार और अनुभव के अभाव में निराकारता: परंपरागत दृष्टिकोण ने राजनीतिक जीवन को आदर्श और सिद्धांतों के आधार पर देखा, लेकिन वास्तविक जीवन के संघर्षों, समस्याओं और व्यवहारों की ओर बहुत कम ध्यान दिया।
निष्कर्ष
परंपरागत दृष्टिकोण ने राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन को एक सैद्धांतिक आधार और नैतिक दिशा दी, जो आज भी राजनीतिक विचारों और संस्थाओं के विकास में मददगार साबित हो रही है। इस दृष्टिकोण ने राजनीति को आदर्श और न्याय के सिद्धांतों से जोड़ा और लोकतंत्र, अधिकार, और शासन के सिद्धांतों को मजबूत किया। हालांकि, इसकी सीमाएँ भी हैं, क्योंकि यह केवल आदर्शों और सिद्धांतों के आधार पर राजनीति को समझने की कोशिश करता था, और समाज के वास्तविक और व्यवहारिक पहलुओं को पर्याप्त रूप से नहीं समझता था। फिर भी, यह दृष्टिकोण राजनीतिक विज्ञान की नींव रखने में अहम भूमिका निभाता है।
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