"तीसरे दर्ज का श्रद्धेय" निबंध में लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'परसाई' ने समाज में श्रद्धा, विश्वास और उनकी वास्तविकता पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है। इस निबंध में उन्होंने उन व्यक्तियों और विचारों की आलोचना की है, जिन्हें समाज में अनावश्यक रूप से श्रद्धेय मान लिया जाता है, भले ही वे वास्तविकता में किसी भी प्रकार की गुणवत्ता या मूल्य को प्रदर्शित नहीं करते।
प्रतिपाद्य
परसाई जी का कहना है कि हमारी श्रद्धा अक्सर दिखावे और बाहरी प्रभावों पर आधारित होती है। वे ऐसे व्यक्तियों का उदाहरण देते हैं, जो भले ही साधारण और तीसरे दर्ज के हों, लेकिन उनके पास एक विशेष प्रकार का आभामंडल होता है, जिससे वे श्रद्धेय बन जाते हैं। यह आभामंडल सामान्यतः उनके सामाजिक रुतबे, पद, या सांस्कृतिक प्रतीकों से निर्मित होता है।
परसाई जी ने इस निबंध में यह भी बताया है कि समाज में कुछ व्यक्तियों को श्रद्धेय मानना और उनकी बातें blindly मान लेना कितना खतरनाक हो सकता है। उन्होंने बताया कि ऐसे 'श्रद्धेय' व्यक्ति अक्सर समाज में भ्रम और अंधविश्वास का प्रचार करते हैं, जो समाज के विकास में बाधक बनता है।
लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि श्रद्धा केवल उन व्यक्तियों के प्रति होनी चाहिए, जिन्होंने अपने कार्यों और विचारों के माध्यम से समाज में सकारात्मक योगदान दिया है। उन्हें सच्चे श्रद्धेय माना जाना चाहिए, न कि उन व्यक्तियों को, जो केवल बाहरी छवि या पद के कारण समाज में सम्मानित हैं।
अंततः, परसाई जी का यह निबंध हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हमें अपने श्रद्धेय व्यक्तियों का चयन कैसे करना चाहिए और समाज में वास्तविकता को समझने की आवश्यकता पर बल देता है। उनका यह दृष्टिकोण हमें अंधविश्वास और दिखावे से दूर रहने के लिए प्रेरित करता है, जिससे हम अपने मूल्य और सिद्धांतों के प्रति सच्चे रह सकें।
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