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भारत में विद्यमान न्यायिक पुनरावलोकन व्यवस्था के विभिन्‍न पक्षों का परीक्षण कीजिए।

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) संविधान और कानूनों की व्याख्या और संरक्षण का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसके माध्यम से न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि संसद और कार्यपालिका के कार्य संविधान के अनुरूप हों। न्यायिक पुनरावलोकन भारतीय लोकतंत्र में एक संतुलनकारी भूमिका निभाता है और सरकार के तीनों अंगों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के बीच शक्ति का समुचित बंटवारा सुनिश्चित करता है।

न्यायिक पुनरावलोकन की अवधारणा

न्यायिक पुनरावलोकन वह प्रक्रिया है, जिसके तहत अदालतें विधायिका द्वारा पारित कानूनों और कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की समीक्षा करती हैं। यदि कोई कानून या आदेश संविधान के विपरीत पाया जाता है, तो अदालत उसे अमान्य घोषित कर सकती है। भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति मुख्यतः भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13, 32, 131-136 और 226 में निहित है।

न्यायिक पुनरावलोकन के विभिन्न पक्ष

  1. संवैधानिक सर्वोच्चता का सिद्धांत: भारत में संविधान सर्वोच्च कानून है। न्यायिक पुनरावलोकन यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी कानून या कार्य संविधान की भावना के विपरीत न हो। यदि कोई कानून संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकता है। इस प्रकार, न्यायिक पुनरावलोकन संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने का कार्य करता है।
  2. मौलिक अधिकारों का संरक्षण: भारतीय संविधान के भाग III में नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकार न्यायिक पुनरावलोकन के तहत संरक्षित हैं। यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वह न्यायालय में अपील कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के पास मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए रिट जारी करने की शक्ति होती है।
  3. असंवैधानिक कानूनों की समीक्षा: न्यायिक पुनरावलोकन विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून की संवैधानिकता की समीक्षा करने की शक्ति देता है। यदि कोई कानून संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई कानून धार्मिक, भाषाई, या जातीय आधार पर भेदभाव करता है, तो अदालत उसे निरस्त कर सकती है।
  4. संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा: भारत में न्यायालय संविधान संशोधन की भी समीक्षा कर सकता है, विशेषकर जब वह संशोधन संविधान के "मूल ढांचे" का उल्लंघन करता हो। यह सिद्धांत केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक निर्णय में उभरा, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का मूल ढांचा संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।
  5. केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन: भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया गया है। न्यायिक पुनरावलोकन यह सुनिश्चित करता है कि केंद्र और राज्य अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करें। यदि कोई राज्य या केंद्र सरकार अपनी शक्तियों का अतिक्रमण करती है, तो न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है।
  6. कार्यपालिका के निर्णयों की समीक्षा: न्यायिक पुनरावलोकन कार्यपालिका द्वारा लिए गए निर्णयों की वैधता की भी समीक्षा करता है। यदि कार्यपालिका का कोई आदेश, नीति, या कार्रवाई अवैध या संविधान के विपरीत है, तो न्यायालय उसे अमान्य कर सकता है। इससे कार्यपालिका की शक्ति पर नियंत्रण बनाए रखा जाता है और उसका दुरुपयोग रोका जा सकता है।

न्यायिक पुनरावलोकन से संबंधित चुनौतियाँ

  1. न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism): न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया में कभी-कभी न्यायपालिका अपनी भूमिका से आगे बढ़कर "न्यायिक सक्रियता" की ओर प्रवृत्त हो जाती है। इसका मतलब है कि अदालतें न केवल संवैधानिकता की समीक्षा करती हैं, बल्कि नीति-निर्माण में भी हस्तक्षेप करती हैं। न्यायिक सक्रियता का समर्थन करने वाले इसे जनता के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक मानते हैं, जबकि इसके आलोचक इसे न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण मानते हैं।
  2. लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर प्रभाव: न्यायिक पुनरावलोकन विधायिका द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करता है, जिससे कभी-कभी यह आरोप लगता है कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करता है। विधायिका जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा संचालित होती है, और न्यायपालिका द्वारा कानूनों को निरस्त करना लोकतांत्रिक भावना के विपरीत माना जा सकता है।
  3. कानूनी जटिलता: न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया जटिल कानूनी सिद्धांतों पर आधारित होती है, जिसे आम जनता के लिए समझना कठिन हो सकता है। इससे न्यायपालिका के निर्णयों पर व्यापक जनता का समर्थन और समझ कम हो सकती है।
  4. विलंब और न्यायिक दखल: न्यायालयों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया को धीमा कर देती है। इसके अलावा, कभी-कभी न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप के रूप में देखे जाते हैं, जिससे सरकार की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।

निष्कर्ष

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन संविधान और लोकतांत्रिक ढांचे का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह न केवल संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने का कार्य करता है, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी करता है। हालांकि, इसके प्रयोग में सावधानी बरतने की आवश्यकता है ताकि न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करे। इसके साथ ही, न्यायिक पुनरावलोकन को अधिक पारदर्शी और न्यायिक प्रणाली को अधिक कुशल बनाने की दिशा में भी प्रयास किए जाने चाहिए।

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