भारतीय संघवाद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संरचना है, जो भारत के विभिन्न राज्यों और केन्द्र सरकार के बीच सत्ता का वितरण करती है। भारतीय संघवाद की नींव 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के साथ रखी गई। यह एक अद्वितीय मिश्रित संघ प्रणाली है, जिसमें संघीय और केंद्रीय तत्व दोनों मौजूद हैं। हालांकि, इसके अनेक लाभ हैं, परंतु कई आलोचनाएँ भी सामने आती हैं।
आलोचनात्मक परीक्षण करते समय निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है:
- केन्द्रीयकरण: भारतीय संघवाद में एक बड़ा दोष यह है कि इसे अधिकतर केंद्रीकृत माना जाता है। संविधान में समवर्ती सूची में कई विषय शामिल हैं, जिसमें केन्द्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। इससे कई बार राज्यों की शक्तियों का हनन होता है, क्योंकि केन्द्र ने कई बार राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप किया है।
- राजनीतिक अस्थिरता: भारतीय संघ में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा और आपसी टकराव अक्सर अस्थिरता का कारण बनता है। कई राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के साथ सामंजस्य नहीं बना पातीं, जिससे राजनीतिक संघर्ष उत्पन्न होते हैं।
- भाषाई और सांस्कृतिक भिन्नताएँ: भारत की विविधता के कारण, विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समूहों के बीच विवाद और असहमति होती हैं। इससे संघीय संरचना में जटिलता बढ़ती है, जो समग्र विकास में बाधा डालती है।
- आर्थिक विषमताएँ: संघीय ढांचे के अंतर्गत राज्यों में विकास के असमान स्तरों के कारण आर्थिक विषमता बढ़ती है। कुछ राज्य तेजी से विकसित होते हैं, जबकि अन्य पिछड़ जाते हैं, जिससे सामाजिक असंतोष बढ़ता है।
- न्यायिक तंत्र: संघीय संरचना में न्यायालयों की भूमिका महत्वपूर्ण है, परंतु कई बार न्यायिक निर्णयों से राज्यों के अधिकारों का हनन होता है। इससे संघीय ढांचे की प्रभावशीलता में कमी आती है।
संक्षेप में, भारतीय संघवाद एक जटिल प्रणाली है जिसमें अनेक लाभ और चुनौतियाँ हैं। इसके कार्यान्वयन में सुधार और संवैधानिक प्रावधानों की पुनरावलोकन की आवश्यकता है, ताकि एक संतुलित और न्यायपूर्ण संघीय प्रणाली की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।
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