1. शास्त्रीय लोकतंत्र
शास्त्रीय लोकतंत्र का आधार प्राचीन यूनानी नगर-राज्यों में विकसित एक ऐसी शासन प्रणाली से था जो कि सम से बड़े और शक्तिशाली नगर-राज्यों में जनसमूहों की बैठक पर आधारित था। इस स्वरूप का महत्वपूर्ण स्वरूप यह था कि लोग राजनीतिक रूप से अत्यधिक सक्रिय थे | सभा की बैठकों के अतिरिक्त नागरिक निर्णय-निर्माण और सार्वजनिक कार्यालयों में अपना योगदान देते थे। हालाँकि इसमें महिलाओं, दासों और प्रवासियों को नागरिकता से वंचित रखा गया था। दासों और महिलाओं के काम करने की वजह से एथेंसवासी पुरुषों को राजनीतिक मामलों में भाग लेने का मौका मिलता था। इस वजह से यह दूर्भाग्यपूर्ण और अलोकतांत्रिक था कि उन्हें नागरिकता से बाहर रखा गया। प्लेटो ने अपनी पुस्तक “द रिपब्लिक' में एथेंस के लोकतंत्र की यह कहकर आलोचना की कि लोग स्वयं पर शासन करने के लिए बौद्धिक रूप से योग्य नहीं थे, उन्हें दार्शनिक राजा और अभिभावकों से शासित होने की आवश्यकता है क्योंकि यही उनके अनुकूल है।
2. कूलीनवादी सिद्धांत
इस सिद्धांत का प्रतिपादन विल्फ्रेडो पैरेटो, जी. मोस्का, रॉवर्ट मिशेल्स और जोसेफ शुम्पीटर ने किया था। इस सिद्धांत का विकास समाजशात्त्र के अध्ययन क्षेत्र में हुआ था लेकिन इसका महत्वपूर्ण निहितार्थ राजनीति शास्त्र के साथ भी है। मिशेल्स ने 'अल्पतंत्र का लौह नियम' दिया, जिसके अंतर्गत उन्होंने तर्क दिया कि अपने वास्तविक लक्ष्य से इतर प्रत्येक संगठन अल्पतंत्र के रूप में सीमित होकर “कुछ लोगों के शासन' के रूप में परिवर्तित हो जाता है। मोस्का का कहना है कि लोगों को दो श्रेणियों शासक और शासित के रूप में विभाजित किया जा सकता है। चाहे कोई भी शासन-प्रणाली हो अधिकांश शक्ति, प्रतिष्ठा असैर सपंत्ति शासक वर्ग के हाथों में होती है। शासक के पास यदि नेतृत्व का गुण नहीं होता है तो वह कुलीनों का अनुसरण करने लगता है। यह सिद्धांत लोकतंत्र के समक्ष एक गंभीर प्रश्न खड़ा करता है और यह सलाह देता है कि यदि कुलीन शक्ति और संपत्ति और निर्णय-निर्माण का नियंत्रण करेंगे तो लोकतंत्र व्यवहारिक धरातल पर नहीं आ सकता।
3. बहुलवादी सिद्धांत
कुलीन सिद्धांत के विपरीत बहुलवादी विश्वास करते हैं कि नीति-निर्माण एक विकेद्रीकृत प्रक्रिया है, जहाँ विभिन्न समूह अपने विचारों को स्वीकृति दिलाने के लिए मोल-तोल करते हैं। यह विभिन्न समूहों के बीच आपसी बातचीत का परिणाम होता है ना कि कुछ कुलीनों के। इस सिद्धांत के प्रतिपादकों में कार्ल मैंनहाईम, रेमंड आरों, रॉबर्ट, डहल, चार्ल्स लिंडब्लोम हैं| डहल और लिंडब्लोम ने 'बहुतंत्र” की संकल्पना दी, जिसका मतलब था सभी नागरिकों के शासन के बजाए बहुत से लोगों का शासन | संक्षेप में, वे कहते हैं कि यद्यपि राजनीतिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग और आर्थिक रूप से शक्तिशाली वर्ग सामान्य नागरिक की अपेक्षा अधिक प्रभाव रखते हैं, फिर भी कोई भी संभ्रांत व्यक्ति राजनीतिक- प्रक्रिया में सदैव हावी रहने योग्य नहीं होता है।
4. सहभागी लोकतंत्र
इस सन्दर्भ में सभी लोकतंत्र सहभागी होते हैं कि वे लोकप्रिय सहमति पर आधारित होते हैं, जोकि इसके सहभागी प्रकृति को सुनिश्चित करता है | हालाँकि लोकतंत्र में यह संभावना रहती है कि लोगों की भूमिका मतदान तक ही समिति रह जाए | ऐसे जटिल लोकतंत्रों में निर्वाचित प्रतिनिधि और नागरिकों की बीच दूरी बढ़ जाती है जहाँ लोग जाति, वर्ग, धर्म और क्षेत्र आदि आधारों पर विभाजित होते हैं। कुलीनतंत्रीय और बहुलवादी सिद्धांत के विपरीत सहभागी लोकतंत्र सामान्य-हित को प्रोत्साहित करने के लिए नीति-निर्माण में नागरिकों की सहभागिता का समर्थन करता है, साथ ही यह सरकार की नागरितों के प्रति अधिक जिम्मेदार बनाता है। रूसो, जे.एस.मिल और सी.बी.मैकफर्सन ने सहभादी लोकतंत्र के विचार को समर्थन दिया। रूसो का कहना है कि लोकप्रिय संप्रभूता लोगों के हाथों में स्थित सर्वाधिक, महत्वपूर्ण शक्ति है, जोकि उनका अहस्तान्तरणीय अधिकार है और सभी नागरिकों को राज्य के मामले में शामिल होना चाहिए। मिल का कहना है कि जो सरकार अपने नागरिकों के नैतिक, बौद्धिक और सक्रिय गुणों को प्रोत्साहित करे, वह सबसे अच्छी सरकार होती है।
5. विमर्शी लोकतंत्र
विमर्शी लोकतंत्र का तर्क है कि राजनीतिक-निर्णय नागरिकों के बीच न्यायपूर्ण और तर्कसंगत विमर्श के माध्यम से होना चाहिए | सर्वहित की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम की प्राप्ति हो सके। जॉन राल्स और जे. हैबरमास ने विमर्शी लोकतंत्र के पक्ष में तर्क दिया है। राल्स का मत है कि एक न्यायपूर्ण राजनीतिक समाज की प्राप्ति के लिए विवेक के माध्यम से हम स्वार्थ पर नियंत्रण पा सकते हैं। हैबरमास का मत है कि न्यायपूर्ण प्रक्रिया और स्पष्ट संचार के माध्यम से निर्णयों पर सहमति बनाई जा सकती है तथा वैद्यता प्राप्त किया जा सकता है।
6. जनवादी लोकतंत्र
जनवादी लोकतंत्र का आशय लोकतंत्र के उस मॉडल से है जिसका निर्माण साम्यवादी परंपरा के अंतर्गत किया गया है। मार्क्सवादियों की अभिरुचि सामाजिक समानता में रही है इस कारण लोकतंत्र का उनका अपना मॉडल है जोकि पश्चिमी मॉडल के विरुद्ध है; क्योंकि पश्चिमी मॉडल के अंतर्गत राजनीतिक समानता स्थापित करने की बात की जाती है। जनवादी लोकतंत्र की स्थापना सर्वहारा-क्रांति के बाद हुई जब सर्वहारा-वर्ग ने राजनीतिक- निर्णयों में अपनी भूमिका निभाना शुरू कर दिया । कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा के शासन की बात की, वहीं लेनिन ने इस अवधारणा को बदलते हुए सर्वहारा के अगुआ के रूप में एक दल की भूमिका से अवगत कराया। हालाँकि लेनिन ने ऐसे किसी तंत्र की स्थापना नहीं की जो कि दल की शक्ति का परिक्षण करता रहे और यह सुनिश्चित करे कि शक्तिशाली नेता सर्वहारा के प्रति जवाबदेह बने रहेंगे। ऐसे में, अंततः जनवादी लोकतंत्र के माध्यम से साम्यवाद को आत्मनियंत्रण का रास्ता मिला है |
7. समाजवादी लोकतंत्र
समाजवादी लोकतंत्र मार्क्सवादी चिंतन में आधारतभूत परिवर्तन की बात करता है। यद्यपि दोनों के लक्ष्यों में समानता है, परन्तु समाजवादी लोकतंत्र क्रांति के बजाय उत्पादन के साधनों पर राज्य के नियंत्रण के माध्यम से इसे प्राप्त करना चाहते हैं। समाजवादी लोकतंत्रवादी लोकतंत्र की इस मार्क्सवादी समालोचना में विश्वास नहीं रखते क्योंकि इसमें वर्गीय-शासन के लिए बुर्जुआ ताकतें मुखौटा पहने रखती हैं। इसके बजाए समाजवादी लोकतंत्रवादी लोकतंत्र को समाजवादी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अनिवार्य मानते हैं। इस कारण वे नागरिकों के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए व्यापार और उद्योग में राज्य के नियंत्रण की बात करते हैं।
8. ई-लोकतंत्र
यह तुलनात्मक रूप से नयी संकल्पना है, लेकिन यह पूर्व के सिद्धान्तकारों द्वारा किये गये कार्यों पर ही आधारित है। प्रतिनिधि लोकतंत्र को और अधिक बेहतर बनाने या इसे प्रतिस्थापित करने के लिए सूचना और प्रौद्योगिकी को प्रयोग ही इलेक्ट्रानिक लोकतंत्र या ई-लोकतंत्र कहलाता है| सभी लोकतंत्रों में उभयनिष्ठ समस्याएँ यथा-मापन का मुद्दा, समय का अभाव? सामुदायिक मूल्यों में गिरावट, नीतियों पर विमर्श के लिए अवसरों का अभाव आदि को डिजिटल संचार के माध्यम से ही निबटा जा सकता है। ई. लोकतंत्र के समर्थकों ने नीति-निर्माण में सक्रिय नागरिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सहभागी-लोकतंत्र के विचार का निर्माण किया है।
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