भक्ति आंदोलन के विभिन्न स्वरूपों और विशेषताओं का वर्णन
भक्ति आंदोलन भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह आंदोलन मुख्य रूप से मध्यकाल में उत्पन्न हुआ और इसके माध्यम से लोगों ने धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक सुधारों की दिशा में परिवर्तन की कोशिश की। भक्ति आंदोलन ने मंदिरों के संस्थागत धर्म से परे जाकर, व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति की आवश्यकता को प्रमुखता दी।
भक्ति आंदोलन के स्वरूप:
- द्रविड़ भक्ति आंदोलन: दक्षिण भारत में शुरू हुआ यह आंदोलन मुख्य रूप से तमिल संतों द्वारा चलाया गया, जिनमें अलीवर, रामानुजाचार्य, और कंबन प्रमुख थे। यह आंदोलन व्यक्तिगत भक्ति और प्रेम के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति की बात करता था। यहाँ पर भगवान शिव, विष्णु और उनके अवतारों की पूजा की जाती थी।
- उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन: इस आंदोलन का आरंभ उत्तर भारत में संतों जैसे रामानंद, कबीर, मीराबाई और गुरु नानक से हुआ। ये संत न तो मूर्तिपूजा के पक्षधर थे, और न ही ब्राह्मणों के जटिल अनुष्ठानों को मानते थे। उनका उद्देश्य केवल ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम को मुख्य स्थान देना था। इन संतों ने निर्गुण भक्ति (जो मूर्तियों से ऊपर ईश्वर की कल्पना करती है) की ओर रुझान बढ़ाया।
- सिख धर्म: गुरु नानक ने भक्ति आंदोलन को एक नया दिशा दी, जिसमें विशेष रूप से एकेश्वरवाद और भक्ति का तत्व प्रमुख था। उन्होंने धार्मिक उन्मूलन, जातिवाद के खिलाफ संघर्ष और समाज में समानता की आवश्यकता को रेखांकित किया।
भक्ति आंदोलन की विशेषताएँ:
- व्यक्तिगत भक्ति: भक्ति आंदोलन ने धार्मिक कर्मकांडों की जगह व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा और भक्ति को प्रमुख माना। यह विश्वास था कि ईश्वर से सीधी जुड़ाव के लिए किसी धार्मिक मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है।
- समानता और सामाजिक सुधार: भक्ति आंदोलन ने जातिवाद, पुरानी परंपराओं और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। संतों ने आम जनता को भगवान के समान अधिकार देने की बात की और समाज में बराबरी का प्रचार किया।
- सहज भाषा में उपदेश: भक्ति संतों ने संस्कृत की जटिलता से बाहर आकर अपनी शिक्षाएँ स्थानीय भाषाओं में दीं, जिससे आम जनता तक पहुँचने में आसानी हुई। जैसे, संत कबीर ने हिंदी में काव्य रचनाएँ कीं और मीरा बाई ने राजस्थानी में भजन गाए।
- धार्मिक सहिष्णुता: भक्ति आंदोलन ने विभिन्न धार्मिक पंथों के बीच सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दिया। संतों ने यह सिद्धांत दिया कि भगवान सभी मानवों के लिए समान है, चाहे उनका धर्म, जाति या लिंग कुछ भी हो।
इस प्रकार, भक्ति आंदोलन ने न केवल भारतीय समाज में धार्मिक परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज किया, बल्कि लोगों के जीवन में आत्मिक शांति और सामाजिक सुधारों के प्रति जागरूकता भी फैलाई।
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