समावेशी शिक्षा (Inclusive Education) का सिद्धांत और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसका उद्देश्य हर विद्यार्थी को उनकी सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, मानसिक, और शारीरिक स्थितियों के बावजूद समान शैक्षिक अवसर प्रदान करना है। इस सिद्धांत का उद्भव और विकास कई सामाजिक, राजनीतिक, और शैक्षिक आंदोलनों का परिणाम है, जो शिक्षा में समता, न्याय और अवसरों की समानता की दिशा में किए गए प्रयासों से प्रेरित है।
1. प्रारंभिक काल और विशेष शिक्षा की शुरुआत
समावेशी शिक्षा की अवधारणा के विकास के पहले, शिक्षा प्रणाली काफी हद तक विभाजनकारी थी। 18वीं और 19वीं सदी के दौरान, समाज के कमजोर वर्गों, विशेष रूप से शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम बच्चों के लिए, अलग से "विशेष शिक्षा" का प्रचलन शुरू हुआ। विशेष शिक्षा का उद्देश्य उन बच्चों को उनके शारीरिक या मानसिक अक्षमताओं के अनुसार सहायता प्रदान करना था, लेकिन यह एक अलगाववादी दृष्टिकोण पर आधारित था। इस दौरान, शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चों को मुख्यधारा से अलग कर दिया जाता था और उन्हें समाज का हिस्सा बनने का मौका कम ही मिलता था।
2. औद्योगिक क्रांति और सामाजिक सुधार आंदोलन
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, औद्योगिक क्रांति और सामाजिक सुधार आंदोलनों ने शिक्षा के क्षेत्र में नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। इस समय के दौरान, समाज में समता और समानता की मांग बढ़ने लगी। विशेष रूप से यूरोप और अमेरिका में, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, और श्रमिक वर्ग के लोगों के लिए शिक्षा के अधिकार की मांग की जाने लगी। इन आंदोलनों ने शिक्षा में सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया और शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाया।
3. मानवाधिकार आंदोलन और शिक्षा में समावेशन
20वीं सदी के मध्य में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में, मानवाधिकारों के प्रति वैश्विक जागरूकता बढ़ी। संयुक्त राष्ट्र ने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration of Human Rights) जारी की, जिसमें शिक्षा को सभी के लिए मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई। इस घोषणा के अनुसार, हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। यह शिक्षा में समावेशी दृष्टिकोण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
इसके बाद, 1960 और 1970 के दशक में नागरिक अधिकार आंदोलन और विकलांगता अधिकार आंदोलन ने शिक्षा के क्षेत्र में समावेशन की मांग को और अधिक प्रखर किया। अमेरिका में, 1975 में 'Education for All Handicapped Children Act' पारित हुआ, जिसने विकलांग बच्चों को सामान्य स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया। इस कानून ने विशेष रूप से विकलांग बच्चों के लिए अलग से बनाए गए स्कूलों के बजाय सामान्य विद्यालयों में उन्हें शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
4. समावेशी शिक्षा के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण
1990 के दशक में समावेशी शिक्षा के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण में तेजी आई। 1994 में स्पेन के सालामांका में आयोजित एक महत्वपूर्ण सम्मेलन में, UNESCO द्वारा 'सालामांका स्टेटमेंट' जारी किया गया। इस स्टेटमेंट में सभी देशों से आग्रह किया गया कि वे ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास करें, जो प्रत्येक बच्चे की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करे, चाहे वह किसी भी प्रकार की अक्षमता या सामाजिक असमानता से प्रभावित हो। इस सम्मेलन ने समावेशी शिक्षा को एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया, और यह विचार तेजी से दुनिया भर में फैलने लगा।
5. भारत में समावेशी शिक्षा का विकास
भारत में समावेशी शिक्षा की पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें भारतीय समाज और शिक्षा के विकास के इतिहास की ओर देखना होगा। प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था के आधार पर शिक्षा का विभाजन था, जिसमें समाज के एक बड़े हिस्से को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था के बावजूद, समय के साथ भारतीय समाज में शिक्षा का महत्व बढ़ा और सामाजिक सुधार आंदोलनों के परिणामस्वरूप सभी के लिए शिक्षा की मांग उठी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत सरकार ने शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत यह सुनिश्चित किया गया कि 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो। हालांकि, 20वीं सदी के अंत तक विशेष शिक्षा और सामान्य शिक्षा अलग-अलग रही।
2005 में, भारत में समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 'सर्व शिक्षा अभियान' की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य सभी बच्चों, विशेष रूप से कमजोर और हाशिए पर रहने वाले बच्चों को शिक्षा के मुख्यधारा में लाना था। इसके बाद, 2009 में, भारत सरकार ने 'शिक्षा का अधिकार अधिनियम' (RTE) लागू किया, जो 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है। इस अधिनियम ने समावेशी शिक्षा के सिद्धांत को सुदृढ़ किया, जिसमें सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी सामाजिक, आर्थिक, या शारीरिक स्थिति में हों, समान शैक्षिक अवसर प्रदान करने की बात की गई।
6. समावेशी शिक्षा की चुनौतियाँ और भविष्य
हालांकि समावेशी शिक्षा का विचार बेहद प्रगतिशील और मानवीय है, लेकिन इसे लागू करने में कई चुनौतियाँ हैं। सबसे प्रमुख चुनौती शिक्षा प्रणाली के ढांचे में बदलाव लाने की है। शिक्षक प्रशिक्षण, शैक्षणिक सामग्री का विकास, और भौतिक संसाधनों की कमी जैसी समस्याएँ समावेशी शिक्षा को प्रभावी रूप से लागू करने में बाधक हैं।
इसके अलावा, सामाजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव लाने की आवश्यकता है। अक्सर समाज के हाशिए पर रहने वाले या शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों के प्रति पूर्वाग्रह होते हैं, जो उनके समावेशन में बाधा डालते हैं। इस दृष्टिकोण को बदलने के लिए समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ाने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
समावेशी शिक्षा का विकास एक लंबे संघर्ष और अनेक आंदोलनों का परिणाम है, जिसका उद्देश्य शिक्षा में सामाजिक, आर्थिक, और शारीरिक भेदभाव को समाप्त करना है। यह अवधारणा हर बच्चे के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है और समाज में समानता, समता, और न्याय की स्थापना में सहायक होती है। हालांकि इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है, लेकिन समावेशी शिक्षा की दिशा में उठाए गए कदम शिक्षा के भविष्य को एक सकारात्मक दिशा में ले जा रहे हैं।
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